लेखिका ममता कालिया ने अपनी किताब “अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा” एक ही व्यवसाय के दो अलग-अलग व्यक्तित्व के बीच प्रेम कहानी का वर्णन किया है. दो लोग जो लेखक होते हुए भी एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं. उनमें इस एक समानता के अलावा दूसरी और कोई समानता नहीं है, उनकी रुचि, जीवनशैली, अंदाज, सब कुछ अलग है. ये दो किरदार खुद ममता कालिया और उनके लेखक पति रवींद्र कालिया होते हैं. ममता कालिया ने यह किताब अपने दोस्त, अपने प्रेमी और जीवन साथी रवींद्र कालिया पर लिखी है. आपने इस किताब के जरिए प्रेम विवाह, विवाह जीवन की उलझनों, गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी, दो भिन्न परिवेश से आए दम्पति के बीच के संबंधों को पाठकों के समक्ष पड़ोसने की कोशिश की है. घर-गृहस्थी और जीवन के तमाम पहलुओं को रचने की कोशिश की है. विवाह जीवन की खामियों को दर्शाया है तो पाठकों के सामने उसकी खूबी भी गिनाई है.
किताब में एक जगह उन्होंने लिखा है,” वह नायकविहीन जीवन था. प्रेम और विवाह ने जीवन को नायक और नवरंग दिया नागवार चौखटे भी दिए.”
आम पाठक को बहुत ज्यादा उधेड़बुन में न रखते हुए ममता जी ने कहानी के शुरुआत में ही ये बता दिया है कि उनके पति रवींद्र कालिया का देहांत कैंसर से हो गया है. लेकिन उसके बाद के किसी अध्याय में पाठकों को ये महसूस नहीं होने दिया कि आप एक ऐसी कहानी पढ़ रहे हैं जिसके नायक का देहांत हो चुका है. कई बार लोग हैप्पी एंडिंग न होने के कारण भी कहानी पढ़ने से डरते हैं. आशा करती हूं आप इस किताब को पढ़ते वक्त इस भय से मुक्त रहेंगे. किताब को बीच में छोड़ने का मन होगा भी नहीं.
कहानी उनके पति रवींद्र कालिया के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. कहानी उनके और उनके जीवन के कई हिस्सों को और अनुभवों को छूती है. हालांकि इसे कहानी न कहें तो बेहतर होगा क्योंकि ये किसी के जज्बात हैं. इसे पारम्परिक कहानी के रूप में लिखा भी नहीं गया है. ऐसा लगता है मानो लेखिका ने पुराने दिनों को याद करते हुए जो हिस्सा जैसे मन में आया वो वैसे ही पन्नों पर रच डाला. एक किस्से का पन्ने के दूसरे किस्सों से कोई वास्ता न होते हुए भी सबकुछ किसी चलचित्र सा चलता रहता है.
लेखक होने के नाते उन्होंने हिंदी लेखन, व्यावसायिक व साहित्यिक लेखन, स्वतंत्र लेखन जैसे सभी बिंदुओं पर भी प्रकाश डाला है. एक लेखक की क्या परेशानियां होती हैं, उनकी समाज के प्रति अपने परिवार के प्रति क्या जिम्मेदारी होती है सभी का वर्णन किया है. साथ ही कलकत्ता, बम्बई, इलाहाबाद, जालंधर आदि शहरों और उनकी संस्कृति का संक्षिप्त में जिक्र है. जैसे एक जगह उन्होंने लिखा है कि कैसे अपने पति के घर जालन्धर पहुंचने पर उन्होंने गौर किया कि स्टेशन पर लिखा है जालंधर पर वहां के स्थानीय इसे ‘जलन्धर’ बोलते थे. ठीक ऐसे ही ममता कालिया ने बंगाल की कला प्रेमी होने, बम्बई की भागदौड़ भरी जिंदगी और इलाहाबाद की आत्मीयता का वर्णन भी किया है. लेखकों के लिए खुद की रचना का क्या महत्व होता है. इन सभी भावों को ममता कालिया ने शब्दों में बखूबी पिरोया है. उस समय के दौर में किस तरह हिंदी भाषा में भी पत्रिका का बोलबाला था.
किताब की भाषा सरल और सौम्यता से भरपूर है. हर अध्याय की शुरुआत ग़ालिब व फ़ैज़ की शायरी से होती है. ये मुझे किताब की बहुत खास बात लगी. कविता, शायरी व शब्दों की दुनियां में जीने वाले लोगों को ये काफी रोमांचकारी लग सकता है. किताब में कोई विषय सूची नहीं है, शायद इसलिए क्योंकि किताबों को आप हिस्सों में बांटते हैं पर जीवन और जज्बात को न हिस्सों में बांटा जा सकता है न उनकी कोई विषय सूची ही हो सकती है.
ममता कालिया कौन हैं?
ममता कालिया एक भारतीय लेखिका हैं. उन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध लेखन, कविता और साहित्य पत्रकारिता जैसी सभी विधाओं में अपना योगदान दिया है. जहां एक तरफ कितने प्रश्न करूं, प्रेम कहानी, खांटी घरेलू औरत, नरक दर नरक आदि कविता संग्रह के शब्द उनके कलम से निकले हैं. उन्होंने यहां रहना मना है, आप न बदलेंगे जैसे नाटक को भी अपना समय दिया है. दूसरी ओर अंधेरे का ताला, बेघर जैसे चर्चित उपन्यास भी लिखे.
उत्तर प्रदेश के वृंदावन में जन्मी ममता कालिया ने अपनी लेखन शक्ति से देश के हर हिस्से में खुद की पहचान बनाई. ममता कालिया के हासिल में अमृता सम्मान, महादेवी स्मृति पुरस्कार, कमलेश्वर स्मृति सम्मान जैसे उल्लेखनीय सम्मान शामिल हैं. वर्तमान में ममता जी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका “हिन्दी” की संपादिका हैं.
किताब के कुछ अंश
“जो भी शहर रवि ने छोड़ा, दोस्तों की एक बड़ी संख्या उन्हें याद करती रही. एक लेखक होने के साथ-साथ वे कितने अच्छे दोस्त थे, यह कोई उनके दोस्तों से पूछे. आज भी देश-विदेश से ऐसे लोगों के फोन आ जाते हैं कि रवींद्र कालिया से बात करनी है. सच्चाई पता चलने पर वे ठगे से रह जाते हैं. अच्छे लोगों का चला जाना स्वीकार करना मुश्किल होता है.
मेरा तो समूचा संसार बदल गया. वे किस कदर मेरा आत्मविश्वास बढ़ाते थे. एक बार किसी राजकीय व्यक्ति से मिलने जाना था. मुझे अपनी कोई भी साड़ी अवसर के अनुकूल नहीं लग रही थी. जैसे तैसे तैयार होकर मैंने रवि से पूछा,” रवि हम अच्छे नहीं लग रहे हैं न.”
रवि ने एक नजर मुझ पर डाली और कहा,” यह देखो कि तुम ममता कालिया लग रही हो या नहीं.” यह सुनते ही मैं गर्व से सिर उठाकर चल दी.रवि की अदा ही कुछ ऐसी थी वे मुश्किल हल नहीं करते बल्कि मुश्किल के बारे में बेफिक्र कर देते.”
किताब का मुख्य किरदार
इस प्रेम कहानी का नायक थोड़ा बेतरतीब सा, प्यारा, स्फूर्तीला, रंगों से भरा, खुशमिजाज छवि का है. जिसे अंग्रेजों के छोड़ गए छुरी, चम्मच, काँटे से परहेज है. जो अपनी नायिका को फेमिनिज्म के सबक याद दिलाकर कर्वाचौथ के आबंडरों से बचने का कहता है. जो सोने- जेवरात से किसी स्त्री के लदे होने की निंदा करता है. नायक अपनी नायिका से बेइंतहा प्यार करता है पर उसके जी हुजूरी में अपने जीने के तौर-तरीके अपने फैसले नहीं बदलता.