जिस कश्मीरियत की बात की जाती है, वह शायद यही है!

जिस कश्मीरियत की बात की जाती है, वह शायद यही है!

इतनी रेलें चलती हैं 

भारत में

कभी

कहीं से भी आ सकती हो

मेरे पास

कश्मीर के भीतर कई ट्रेनें नहीं चलती, तकनीकी रूप से कहें तो एक ही मार्ग पर ट्रेन चलती है और वह भी बंद बुलाने के बाद ठप्प ही रहती है। तो यहां आलोक धन्वा की कविता का ख्याल ही आ सकता है ट्रेन नहीं। पहले ही दिन रात में यह साफ हो गया था कि हम कल अपनी गाड़ी के अलावा किसी दूसरी गाड़ी से बारामूला नहीं जा सकते हैं क्योंकि चुनाव की वजह से कश्मीर बंद है। यह जानकर भी मैं निराश नहीं हुई थी, मुझे पता चल चुका था कि घूमने की सूची मैंने दिल्ली के मेट्रो के हिसाब से तैयार की है और यह कश्मीर है, जहां बंद कभी पीछा नहीं छोड़ता। और हमारे अजनबी दोस्त आज कहीं अपने फोटोग्राफी की वजह से बाहर जा रहे थे, वह भी हमारे साथ नहीं रहनेवाले थे। यानी आज सिर्फ हम दो लड़कियों को कश्मीर देखना था। लेकिन फिर ऐसा हुआ कि कोई अब्दुल्ला साहब का फोन आया जो हमें आज श्रीनगर शहर का भ्रमण कराने के लिए तैयार हो गए थे।

अब हमें लोकल गाड़ियों से घूमना था। हम रास्ता पूछतेपूछते सही जगह आ गए जहां से हमें डल झील के लिए शेयरिंग कैब मिलने वाली थी। कश्मीर में लोग तसल्ली से रास्ता बताते हैं, यहां भागदौड़ बहुत नहीं है। ज्यादा परेशान देखकर लोग आपको आपकी जगह तक भी छोड़ आएंगे। हां तो हमें एक शेयरिंग कैब मिल गई, हम दोनों पीछे बैठ गए। कैब से धीरेधीरे सारे लोग उतरते गए और फिर बच गए हम सिर्फ दो। कैब ड्राइवर ने पूछा कि बाहिर (बाहर) से आए हो और हमने हां में जवाब दिया। उसने हंसते हुए पूछा, ‘’अब तक कोई आतंकवादी तो नहीं मिला न! आप लोग ऐसा ही सोचते हो न कि कश्मीर में सब आतंकवादी हैं।’’ हमने उसकी बात काटते हुए कहा कि नहीं, ऐसा नहीं है। फिर वह इस बंद के बारे में बताने लगे कि कैसे बंद की वजह से उनकी रोजीरोटी में दिक्कत आती है और इस मसले का कोई हल दिख ही नहीं रहा। उन्होंने अच्छे से और बेफिक्री के साथ घूमने की सलाह देकर हमें डल झील पर छोड़ दिया।

हम डल झील पर खड़े थे। तभी एक 20-21 साल का लड़का हमें हेलो कहते हुए आया और पता चला कि यही अब्दुल्ला साहब हैं। अबदुल्ला शक्लसूरत से कश्मीर के नहीं दिखते, हमने इस बारे में कुछ नहीं पूछा। उन्होंने कश्मीरी में शिकारे वाले से बात कर ली और हम शिकारे पर आ गए। अब्दुल्ला अपने साथ अच्छा कैमरा लेकर आए थे लेकिन हमें उसकी सेटिंग समझ नहीं आ रही थी। हम शिकारे वाले से कश्मीर के हालात के बारे में बात करने लगे। एक बात बता दूं कि कश्मीर वाले सबसे ज्यादा भारत की मेनस्ट्रीम मीडिया से परेशान हैं। इसलिए अगर आप कश्मीर में यह बताते हैं कि आप मीडिया से हैं तो वह कभी भी खुल कर आपके सामने कुछ नहीं बोलेंगे और मीडिया का मतलब वहां जी न्यूज और अर्नब गोस्वामी को समझ लिया गया है।

शिकारा पानी पर धीरेधीरे आगे सरक रहा है। पानी बेहद साफ है और डल के पानी में नीचे की घास साफ दिख रही है। शिकारे पर बैठे लोगों के हाथों में फोन, कैमरा और सेल्फी स्टीक है। हम उस पीढ़ी के लोग हैं जिन्हें खूबसूरती देखने से पहले उसे कैद करने का ख्याल आता है। हम हर चीज अपने पास रख लेना चाहते है, कुछ छोड़ना नहीं चाहते हैं। हम वर्तमान से ज्यादा इस बात से परेशान रहते हैं कि कल जाकर हमें यह तस्वीर देखनी है और दुनिया को दिखानी है। लेकिन आप कुछ भी कर लें कश्मीर आपको ठहरा जरूर देता है। आप कितनी ही बेचैन आत्मा क्यों न हैं, वह आपको रोकने का जज्बा रखता है। डल झील सिर्फ पानी वाला झील नहीं है। इसके ऊपर एक बसा हुआ जीवन है। इसके बीचोंबीच खेत हैं, दवाई, कपड़े और कश्मीरी हथकरघा चीजों की दुकाने हैं, लोगों के घर हैं।महिलाएं नाव चलाती हुई दिखती हैं।बाहर पढने के लिए जाते हुए बच्चे दिखते हैं। यह अपने में एक जीवंत द्वीप है।आप शिकारे पर बैठे रहें और सामान भी खरीदते रहें।

शिकारे वाले ने हमें साफसाफ कहा, ‘’ मीडिया वाले हम कश्मीरी लोगों को लेकर बाहर नफरत फैलाते हैं, हमारी बातों को सही से नहीं रखते हैं और बातबात में हमें पाकिस्तान भेजने लगते हैं। जो कि सही नहीं है। हम क्यों परेशान हैं, हम क्या चाहते हैं, यह तो कोई पूछता ही नहीं। आप मुझसे आराम से बात कर सकते हो, लेकिन यह थोड़े है कि हर समय रिकॉर्डर और कैमरा लेकर बात करो, आप यहां घूमो आपको खुद समझ आ जाएगा। कारोबार तो हमारा चौपट हो रहा है।’’

इस बीच अब्दुल्ला के साथ हम दोनों आप से तुम पर आ गए थे क्योंकि यह लड़का इतना फ्रेंडली है कि पूछो मत! इनके घर वाले तिब्बत से कश्मीर आ गए थे और इनका जन्म यहीं हुआ है इसलिए यह अपने आपको बराबर का कश्मीरी मानता है भले इसके चेहरे को देखकर लोग इसे कश्मीरी माने न माने। हम डील झील से बाहर आकर यह तय नहीं कर पा रहे थे हमें अब कहां जाना है। वैसे भी सामने चिनार के बड़ेबड़े पेड़ देखकर कहीं जाने की इच्छा कहां होती है। फिर भी हम एक जगह जाकर खड़े हो गए। यहां से तेजी से एक गाड़ी पास हुई जो अजीब से इशारे करते हुए निकल गई। मैं और अब्दुल्ला एकदूसरी की शक्ल देखते रह गए थे। हम वहीं खड़े कश्मीर यूनिवर्सिटी की ओर जाने की सोच रहे थे कि फिर वही गाड़ी वापस तेजी से गुजरी और उसमें बैठे लोग चिल्लाते हुए निकल गए। मेरे साथ जब भी बाहर ऐसी स्थिति होती है तो मुझे महात्मा गांधी का वह वचन याद आता है जिसमें उन्होंने कुछ इस तरह की बात कही थी  कि देश में जब लड़कियां पूरी स्वतंत्रता से कहीं आ जा सकेंगी और उनके साथ बुरी हरकतें नहीं होंगी तभी यह देश सही मायनों में महिलाओं के लिए कहा जाएगा। खैर मेरा दिमाग कुछ देर खराब जरूर रहा लेकिन अब क्या ही क्या जा सकता है। कितना दिमाग लगाएं।  हम कश्मीर यूनिवर्सिटी चले गए।

किसी भी शहर का कॉलेज और विश्वविद्यालय बाकी जगहों से प्रगतिशील होता है। इसलिए दुनिया में कहीं भी स्वच्छंद विचारधारा पर पहला हमला विश्वविद्यालयों पर किया जाता है। जैसा किए आए दिन खबरे पढ़ते रहते हैं कि फलना कॉलेज ने कपड़े पर प्रतिबंध लगाया तो किसी और ने लड़के और लड़कियों को आपस में बातचीत नहीं करने का फरमान सुना दिया। हमें भूख लग रही थी तो हम कैंटीन चले गए, यहां भी बांकी कॉलेजों वाला ही माहौल था। लोग खा रहे हैं, हंस रहे हैं और लिखपढ़ रहे हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय के एक छात्र ने हमें बताया था कि यहां आप बांकी विश्वविद्यालयों की तरह बहुत ज्यादा राजनीतिक विचारविमर्श नहीं कर सकते हैं क्योंकि एक तरफ से स्टेट का दमन होगा और दूसरी तरफ से मिलिटेंट का। इसलिए यहां चर्चापरिचर्चा की जो रिवायत थी किसी समय, वह अब खत्म होती जा रही है। मेरे जेहन में ख्याल आता है कि यह तो पूरे देश के विश्वविद्यालयों के साथ हो रहा है। हां, यह बात अलग है कि कश्मीर में डर का माहौल ज्यादा है।

इसके बाद हम हजरत बल की ओर बढ़ने लगे। यहं मुझे थोड़ा असहज लगने लगा था। मुझे ऐसा लग रहा था कि हमें लोग देख रहे थे। अब्दुल्ला ने कहा कि अरे हम तीनों बाहर के लगते हैं न इसलिए, हमें लोग देख रहे हैं। हजरत बल दरगाह वही जगह है, जहां की एक घटना की वजह से पूरे देश में दंगे का माहौल पैदा हो गया था। दरअसल 1963 में यहां से मूमुकद्दस (पैगंबर मोहम्मद की दाढ़ी का बाल) चोरी हुआ था। यह संकट तब टला था जब मूमुकद्दस दरगाह में जिस जगह से चोरी हुआ था वहीं से वापस मिल भी गया था। हमलोग यहां पहुंचे लेकिन अंदर नहीं जा सकते थे क्योंकि मेरे पास सिर पर ओढ़ने के लिए दुपट्टा नहीं था। लेकिन फिर हम साहस करके चले गए, जब वापस लौट रहे थे तो एक महिला ने काफी ऊंची आवाज में और बेहद खराब लहजे में कहा कि दुपट्टा लेकर क्यों नहीं गए। अंदर ही अंदर मुझे गुस्सा तो आ रहा था लेकिन दुपट्टा नहीं होने का हवाला देकर हम पार्क में बैठ गए।वहां कुछ बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे जिसे देखकर अब्दुल्ला भी फुटबॉल खेलने लगा लेकिन इसी बीच एक बुजुर्ग डांट लगा कर गए कि यह फुटबॉल खेलने की जगह नहीं है। हम यहां से उठकर बाजार की तरफ चले गए।

श्रीनगर, हजरतबल मार्केट

कश्मीर में बेकरी की बढ़िया दुकानें हैं। इससे इतनी अच्छी खुशबू आती है कि आप दुकान पर गए बिना नहीं रह सकते हैं। कश्मीर को नदी, झील, चाय की प्यालियां और मौसम के लिए आप हमेशा याद रख सकते हैं। अब शाम होतेहोते हम काफी थक गए थे और जल्दी से जल्दी किसी गर्म जगह पहुंचना चाहते थे। फिर हमारे अजनबी दोस्त का फोन आया था कि वह फ्री हो गए हैं और हमें लेने आ रहे हैं। पराए शहर में कौन इतना ख्याल रखता है कि कौनकहां परेशान हो रहा है। मैं अपने मम्मीपापा को दिल्ली तक नहीं घूमा पाई थी अपनी काम की वजह से और यहा….

कश्मीर में आपको बिहार बारबार याद आता है क्योंकि यहां बिहारियों की तादाद बहुत ज्यादा है और खानेपीने में भी बिहार की चीजें मिल जाएंगी। वैसे भी बिहारी कहीं भी जीने के लिए विख्यात नहीं बदनाम ही हैं। यहां बकायदा एक चौक को बिहारी चौक कहा जाता है। और हॉर्न बजाने की जो श्रीनगर के लोगों की आदत है, वह पटना वालों और बनारस वालों को टक्कर की है। खैरे अपने बिहारी भाईबंधुओं को देखतेदेखते हम विंटरफेल कैफे पहुंचे। यह कैफे टेलिविजन सीरिजगेम ऑफ थ्रोन्सको समर्पित है और उसी तरह से इसे सजाया गया है।सीरिज में तो बहुत नाटक है लेकिन यहां आप आराम से विंटरफेल हासिल कर सकते हैं।

यहां हमारी मुलाकात आकिब नाम के एक युवा नेता से होती है।वह इस बार श्रीनगर के स्थानीय चुनाव में उम्मीदवार भी हैं। हमारी बातचीत चुनाव को लेकर होने लगती है ।आकिब पहले पीडीपी से जुड़े थे लेकिन अब अलग हैं और किसी पार्टी में नहीं हैं।

उनका कहना है कि वह भारत की तरफ झुकाव रखते हैं लेकिन दिल्ली को कश्मीर को समझना होगा। वह मुझसे सीधे सवाल पूछते हैं, ‘‘दिल्ली में आप लोग आराम से विरोध प्रदर्शन कर सकते हो, थोड़ीबहुत लाठियां खाने के बाद भी शिकायत कर सकते हो लेकिन कश्मीर में ऐसा नहीं है। आप विरोध प्रदर्शन कर ही नहीं सकते और इसी वजह से पत्थरबाजी होने लगी। और पैसे लेकर कोई पत्थरबाजी नहीं करता है।’’

उनका कहना है, ‘‘ मैं राजनीति में इसलिए आया हूं क्योंकि दिल्ली से ज्यादा कश्मीर के नेताओं ने कश्मीर को फेल किया। कश्मीर में जिस किसी के पास सत्ता गई, वह कश्मीरियों को ही भूल गया। कश्मीरी युवाओं को बातचीत के लिए जगह चाहिए और केंद्र और राज्य को इसकी पहल करनी ही होगी।’’

जब आप कश्मीरियों के मुंह से कश्मीर की कहानियां सुनते हैं तो आपके सारे तर्क बर्फ की तरह जमने लगते हैं। अगर आप सुनना चाहते हैं तो, नहीं सुनना चाहते हैं तो वह भी बोलते रहें और आप भी बोलते रहिए। हम देर तक बातें करते रहें।बातचीत खत्म होने के बाद वापस जॉस्टल लौटने वाले थे। दूसरे दिन भी रात के ग्यारह बज रहे थे। कश्मीर मुझे बिल्कुल सुरक्षित नजर आ रहा था। मुझे घर सा एहसास होने लगा था और यह एहसास यहां के लोगों की वजह से था।  किसी भी जमीन और किसी भी मजहब से ऊपर इंसानी ताल्लुकात होते हैं और यही ताल्लुकात यह विश्वास दिलाता है कि दुनिया में नेक लोगों की संख्या अब भी बहुत ज्यादा है। दिल तो नहीं कर रहा लेकिन कश्मीर का दूसरा दिन मेरा समाप्त हो रहा था और मैं बेहद खुश थी।

यह है कश्मीर यात्रा की  दूसरे दिन की कहानीअगली कहानी कल आएगीअच्छी लगी हो तो इंतजार करें और न अच्छी लगी हो तो भी तो बर्दाश्त तो करनी ही पड़ेगीक्योंकि हमारे दोस्त विष्णु नारायण कह गए हैं कि बर्दाश्त कीजिए और क्या कीजिएगा

नोट: यह ब्लॉग स्नेहा ने लिखा है। वह पेशे से पत्रकार हैं।