अब की पूरी दुनिया ने एकता की क़ीमत समझ ली है, सिवाए दक्षिण एशियाई मुल्क़ों के। देश पास आ रहे हैं। राष्ट्र के भीतर ही सबकुछ पा लेने की ज़िद छोड़ कर दुनिया के देशों ने आज सामूहिकता में विकास की एक उदार अवधारणा विकसित कर ली है। तुम्हारा गेहूँ हमारा दाल लेकर अलग–अलग फाँक–चाट कर कुपोषित होने की बजाए मिलकर हम दोनों की ‘दाल–रोटी‘ करने वाली भावना का नाम है मुक्त बाज़ार। जिसे दुनिया के देश तेज़ी से अपना रहे हैं। इसमें यूरोप वालों ने ‘यूरोपीय यूनियन‘ बनाया तो अरब देशों का ‘अरब लीग‘ पहले से ही है, यही नहीं दक्षिण–पूर्व एशिया तक के देशों ने ‘आसियान‘ बना कर अपने लोगों की आर्थिक तरक़्क़ी और ख़ुशहाली के लिए साथ मिल कर काम करना शुरू कर दिया है। एक हमारे दक्षिण एशिया के देश हैं ! पुराने ज़माने के ठाकुर ख़ानदानों की तरह आज भी न जाने किस पुश्तैनी लड़ाई में मुब्तिला हैं।
इसमें सबसे ख़ास लड़ाई है भारत–पाकिस्तान की। एक सामान नदियाँ, एक मुश्तरका तहजीब और दोनों तरफ एक जैसे लोग। साठ–सत्तर साल पहले कुछ गलतफहमियाँ हुईं और एक ही ज़मीन के दो टुकड़े दो आज़ाद मुल्क़ बन गए। अब बन गए तो बन गए, झगड़ा ख़तम करो यार। दुनिया के और भी उपनिवेश बँटे थे, तुम दोनों कोई नमूने नहीं हो कि सत्तर साल की उमर होने तक एक–दूसरे पर संगीनें ताने रहो। बीती को बिसारो और साथ मिल कर एक शांत और ख़ुशहाल दक्षिण एशिया के लिए काम करो। आज दोनों देशों की तरक़्क़ीपसन्द अवाम की इच्छा है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते अमेरिका और कनाडा की तरह होने चाहिए। शान्तिपूर्ण सहआस्तित्व वाले।
अभी–अभी पाकिस्तान में आम चुनाव हुए हैं। विजेता दल पाकिस्तान तहरीक–ए–इंसाफ के मियाँ इमरान ख़ान नियाज़ी कुछ दिनों बाद काली शेरवानी पहने मुल्क़ के अगले पीएम पद की शपथ लेने जा रहे हैं। जीतने के बाद उनकी शिक़ायत थी कि भारतीय मीडिया ने हमेशा उन्हें खलनायक की तरह पेश किया। यह शिक़ायत बेहद जायज़ थी भी। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का नियम कहता है कि किसी भी देश की कोई पार्टी आपकी दुश्मन नहीं होती। सत्ता में आने वाला हर दल आपका दोस्त होना चाहिए। लेकिन हमारे यहाँ की मीडिया ने बांग्लादेश में ख़ालिद ज़िया को, नेपाल में प्रचण्ड को, श्रीलंका में राजपक्षे को और यहाँ तक कि भूटान में वहाँ के शाही परिवार को अपना दुश्मन बनाए रखा है। इसी कड़ी में हिंदुस्तान की प्रेस द्वारा इमरान ख़ान को ‘तालिबान ख़ान‘ कहा गया। उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज का एजेंट माना गया। ऐसी आशा व्यक्त कि गई कि उनका राज आते ही देश में फ़ौज़ और फ़ासीवादी ताक़तें हावी हो जाएँगी। किसी भी हालत में अपने पड़ोसी देश के भावी कर्णधार को हमें उस मानसिक स्थिति के लिए तैयार नहीं करना चाहिए जिसमें क्रिया की प्रतिक्रिया करते हुए, अपनी विदेश नीति बनाते हुए वह भी हमारे प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाए।
आज भारत के लिए अच्छी स्थिति ये है कि दुश्मन कहे जानेवाले मुल्क़ को ऐसा पीएम मिलने जा रहा है जिसका भारत से नाता अपने किसी भी पूर्ववर्ती से कई गुणा ज़्यादा है।क्रिकेट की दुनिया में हमारे यहाँ एक पूरी की पूरी पीढ़ी ऐसी है जो इमरान ख़ान की दोस्त है।भारत सरकार इन रिटायर्ड क्रिकेटरों का अपनी कूटनीति के लिए बेहतर इस्तेमाल कर सकती है।जैसे कपिल देव को पाकिस्तान में भारत का उच्चायुक्त बनाया जा सकता है।
लेख का अंत करते हुए उम्मीद क़ायम रखता हूँ कि पाँच सालों बाद मेरा अंदाज़ा झूठा साबित नहीं होगा। घरेलू सियासत में भारत के ख़िलाफ़ ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो कभी हज़ार सालों तक जंग लड़ने की कसमें खाते थे। उनकी बिटिया बेनज़ीर भुट्टो कहती थीं कि घास की रोटी खाएँगे लेकिन परमाणु बम बनाएँगे। नवाज़ शरीफ़ ने भी 1999 में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का प्यार भरा दिल तोड़ दिया था। पर सच ये है कि इन सभी लोकतान्त्रिक ताकतों ने हिंदुस्तान के साथ बेहतर ताल्लुक़ात क़ायम करने में चाहे मील का एक–एक पत्थर नहीं जोड़ा हो पर दो–दो मज़बूत क़दम बढ़ाया ज़रूर है। उम्मीद की जा सकती है कि घरेलू सियासत के भारत विरोधी नेता इमरान पीएम बनने पर अंतराष्ट्रीय राजनीति की रवायत के मुताबिक़ दिल से हमारे साथ अच्छे सम्बन्ध चाहेंगे। आशा करता हूँ कि बुरी तरह ख़राब माली हालत वाले अपने देश के लिए इमरान ख़ान भारत की ज़रूरत को समझेंगे।
द बिहार मेल के लिए ये लेख अंकित दूबे ने भेजा है. यह लेखक के अपने विचार हैं. अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान के पूर्व छात्र हैं.